सच्ची खुशी दूसरों की सेवा में है - रतन टाटा

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट 

मुम्बई - एक बार टेलीफोन साक्षात्कार में भारतीय अरबपति रतन टाटा से पत्रकार ने पूछा - महोदय , आपको जीवन में सबसे अधिक खुशी कब मिली ? तब उन्होंने एक मार्मिक जवाब देते हुये कहा कि मैंने अपने जीवन के चार चरणों में खुशी की तलाश की थी और अंततः मुझे सच्चे सुख का अर्थ समझ में आया। उन्होंने बताया कि उनका पहला चरण धन और साधन संचय करने का था , यह सब तो मिल गया लेकिन इस दौरान मुझे वह खुशी नहीं मिली - जिसकी मुझे उम्मीद थी। फिर दूसरा चरण आया जब मैंने कीमती सामान और वस्त्रों को इकट्ठा करना शुरू किया। मुझे जल्द ही यह एहसास हुआ कि इस सुख का प्रभाव भी अस्थायी है क्योंकि इन वस्तुओं की चमक ज्यादा देर तक नहीं रहती , यानि इससे भी वह खुशी नही मिली जिसकी मुझे उम्मीद थी। तीसरा चरण तब आया जब मैंने बड़े-बड़े प्रोजेक्ट हासिल किये , उस समय मेरे पास भारत और अफ्रीका में डीजल की आपूर्ति का 95 प्रतिशत हिस्सा था और मैं भारत के साथ - साथ एशिया में सबसे बड़े इस्पात कारखाने का मालिक था। लेकिन फिर भी मुझे वह खुशी नहीं मिली , जिसकी मैंने कल्पना की थी। फिर अंत में चौथा और निर्णायक चरण आया , जिसने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी। मेरे एक मित्र ने मुझे लगभग दो सौ विकलांग बच्चों के लिये व्हीलचेयर खरीदने के लिये कहा। मैंने अपने दोस्त के अनुरोध पर तुरन्त व्हीलचेयर खरीदी , लेकिन मेरे मित्र ने आग्रह किया कि मैं उनके साथ जाकर खुद उन बच्चों को व्हीलचेयर भेंट करूं। मित्र के विशेष आग्रह पर मैंने बच्चों को अपनी हाथों से व्हीलचेयर दी। व्हीलचेयर पाकर बच्चों की आंखों में जो खुशी की चमक देखी , वह मेरे जीवन में एक नया एहसास लेकर आई। उन बच्चों को व्हीलचेयर पर घूमते और मस्ती करते देखना ऐसा था , मानो वे किसी पिकनिक स्पॉट पर हों और किसी बड़े उपहार का आनंद ले रहे हों। इसके बाद रतन टाटा ने अपने जीवन बदल देने वाले पल के बारे में बताते हुये कहा कि बच्चों को व्हीलचेयर बांटने के बाद जब मैं वापस अपने घर जाने की तैयारी कर रहा था , तभी एक बच्चे ने मेरी टांग पकड़ ली। मैंने धीरे से अपने पैर छुड़ाने की कोशिश की , लेकिन उसने और जोर से पकड़ लिया। तब मैं झुककर उससे पूछा - क्या तुम्हें कुछ और चाहिये ? उस बच्चे का जवाब ही मेरा जीवन बदलने वाला था। उसने दोनो हाथ जोड़कर कहा - मैं आपका चेहरा याद रखना चाहता हूं ताकि जब मैं आपसे स्वर्ग में मिलूं , तो आपको पहचान सकूं और एक बार फिर आपका धन्यवाद कर सकूं। आगे रतन टाटा ने अपने रूंधे गले से सिसकी भरी आवाज में बताया कि बच्चे के इस एक वाक्य ने ना केवल रतन टाटा को झकझोर दिया , बल्कि उनके जीवन के प्रति दृष्टिकोण को पूरी तरह से बदल दिया। यह अनुभव उन्हें समझा गया कि सच्ची खुशी दूसरों की सेवा में है , ना कि भौतिक संपत्तियों में। इस पत्रकार वार्ता की बातों को हूबहू साझा करके मैं पाठकों से कहना चाहूंगा अगर हम जीवन में ये सोचकर काम करें कि जब हम इस संसार को छोड़ेंगे , तो हमें किसलिये याद किया जायेगा ? क्या हमारा जीवन किसी के लिये इतना महत्वपूर्ण होगा कि वह हमें फिर से देखना चाहे ? अगर ऐसा हुआ तो हम सभी के जीवन जीने का तरीक़ा ही बदल जायेगा। ज़रूरी नहीं कि ऐसा कुछ करके हम सभी रतन टाटा बन जायेंगे लेकिन जब इस दुनियाँ को हम टाटा करेंगे तो आपके आसपास की दुनियां को यह जरूर लगेगा कि आज एक और रत्न हमारे बीच से चला गया।

Patrika Mungeli

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